भारत के सांस्कृतिक वैभव तथा भारतीय साहित्य की संपन्न परम्परा ने विदेशी विद्वानों को निरंतर आकृष्ट किया है ।जर्मन विद्वान गेटे (1749-1832 ) ने तो कालिदास द्वारा लिखित नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ की भूरि -भूरि प्रशंसा करते हुए उसे विश्व साहित्य की अन्यतम कृति माना है । सर विलियम जोंस (1746-1794) जो कलकत्ते के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में प्रतिनियुक्त थे उन्होंने भारतीय साहित्य की विशालता की चर्चा करते हुए यहाँ तक कहा कि एक जीवन में कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की अपनी विविधता तथा विशदता के कारण उससे पूर्णतः परिचित नहीं हो सकता। विलियम जोंस संस्कृत भाषा को तो ग्रीक और लैटिन भाषाओं से अधिक पूर्ण और श्रेष्ठ मानते थे। फ्रांसीसी विद्वान अलेन डैनियल (1907-1994) ने अपने ग्रन्थ ‘भारत वर्ष का इतिहास’ में संस्कृत भाषा और उसके साहित्य को विश्व साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि माना है ।
भारत के स्वतन्त्र होने से पहले सामान्यतः विदेश में भारतीय साहित्य से तात्पर्य संस्कृत साहित्य से ही होता था ।यही कारण है कि जर्मन विद्वान गेटे, ब्रिटिश विद्वान विलियम जोंस तथा फ्रांसीसी विद्वान अलेन डैनियल सभी अपने भारत विषयक ग्रंथों में संस्कृत साहित्य की ही चर्चा और उसका मूल्यांकन करते हैं। स्टेन नो की पुस्तक ‘इंडियन ड्रामा’ तथा एम . विंटरनित्ज़ की पुस्तक ‘अ हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन लिटरेचर’ संस्कृत साहित्य की ही पुस्तकें हैं। संस्कृत साहित्य की वैश्विक प्रतिष्ठा के कारण ही यूरोप और अमरीका के सभी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पर्याप्त समय से संस्कृत भाषा और साहित्य का अध्ययन और अध्यापन हो रहा है । संस्कृत साहित्य के अंतर्गत जहाँ वैदिक साहित्य,उपनिषद् ,पुराण , रामायण और महाभारत का अध्ययन होता है वहीँ कालिदास,भास, भवभूति, माघ तथा हर्ष आदि के ग्रन्थों का भी अध्ययन भारतीय विद्या विभागों में होता है।
भारतीय भाषाओं में हिंदी की भाषिक तथा साहित्यिक दृष्टि से भी अध्ययन – अनुसंधान की विदेशी परम्परा रही है। हिंदी भाषा के व्याकरण का पहला ग्रन्थ फारसी भाषा में लिखा गया मिर्ज़ा खान का ब्रजभाषा व्याकरण ग्रन्थ वर्ष 1676 में प्रकाशित हुआ था । इसके बाद जॉन जोशुआ केटलार ,हेडले आदि कितने ही विदेशी विद्वानों ने हिंदी के व्याकरणिक पक्ष पर लिखा पर हिंदी साहित्य के अध्ययन का सिलसिला फ़्रांसीसी विद्वान गार्सा द तासी के ग्रन्थ ‘हिन्दुई साहित्य का इतिहास (1870) से ही प्रारम्भ होता है जो फ्रांसीसी भाषा में हिंदी साहित्य के आलोचंनात्मक विश्लेषण का इतिहास परक पहला ग्रन्थ है। इतालवी विद्वान एल.पी. तेसीतोरी ने तो राम चरित मानस और वाल्मीकि रामायण के तुलनात्मक अध्ययन पर फ्लोरेंस विश्वविद्यालय से वर्ष 1911 में पी एच डी की उपाधि प्राप्त की थी ।अँगरेज़ विद्वान जे .ई . कारपेंटर ने वर्ष 191८ में ‘थियोलोजी ऑफ़ तुलसीदास’ विषय पर लन्दन विश्व विद्यालय से डी. लिट् . की उपाधि प्राप्त की थी। फ्रांसीसी विद्वान प्रोफ. बोदवील ने वर्ष 1935 में तुलसीदास पर अपना शोध प्रबंध लिखा और रूसी विद्वान ए. पी . बरान्निकोव ने वर्ष 1936 में समकालीन हिंदी साहित्य पर अपना विनिबंध प्रकाशित कराया ।इस प्रकार .जर्मनी ,फ्रांस .इंग्लैंड ,इटली तथा रूस आदि सभी प्रमुख देशों में हिंदी साहित्य के विषयों पर विश्वविद्यालयों की उच्चतम शोध उपाधि की स्वीकृति विश्व स्तर पर भारतीय साहित्य की मान्यता का प्रमाण ही है । अधिक विस्तार से हिंदी अध्ययन की दीर्घ वैश्विक परम्परा के लिए Studies on Hindi , A Comprehensive Bibliography, Dr. Vimlesh Kanti Verma, Pilgrims Publishing , Varanasi सन्दर्भ ग्रन्थ को देखा जा सकता है ।
वर्ष 1947 में भारत के स्वतन्त्र होने पर और वर्ष 1950 में भारत जब विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र घोषित हुआ तो भारतीय भाषाओं के साहित्य के प्रति भी विश्व स्तर पर विदेशी विद्वानों का रुझान होना स्वाभाविक ही था ।भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत की प्रधान भाषाओं का विकास हो सके इसके लिए भारतीय संविधान की अष्टम अनुसूची की कल्पना की और देश की 14 प्रमुख भाषाओं को अनुसूची में रखकर उनके विकास का दायित्व लिया । अनुसूचित भाषाएँ थीं – असमिया,उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगु , पंजाबी, बांग्ला, मराठी, मलयालम, संस्कृत व हिंदी। इसके बाद इस अनुसूची में सिन्धी ,फिर नेपाली. कोंकडी और मणिपुरी, फिर बोडो, डोगरी, मैथिली और संताली जुडीं। आज अष्टम अनुसूची में 22 भारतीय भाषाएँ हैं। तत्वतः इन सभी 22 भाषाओं में लिखा और वाचिक साहित्य भारतीय साहित्य है । इन 22 भाषाओं में प्रारंभ से ही हिंदी अपने संख्या बल तथा क्षेत्र विस्तार के कारण केन्द्रीय महत्व की भाषा बनी । वह देश में व्यापार, जनसंचार, शिक्षा, मनोरंजन तथा राजनीति की भाषा बनकर उभरी तथा उसे राजभाषा, राष्ट्रभाषा तथा संपर्क भाषा की प्रतिष्ठा मिली ।
भारतीय भाषाओं में संख्याबल की दृष्टि से हिंदी के अतिरिक्त बांग्ला ,उर्दू , तथा तमिल भाषा का भी महत्वपूर्ण स्थान है इसलिए विदेशी विद्वानों का ध्यान बांग्ला,उर्दू तथा तमिल की प्राचीन और अर्वाचीन साहित्यिक समृद्धि के कारण ओर भी गया पर चूंकि सम्पूर्ण भारत को समझने के लिए हिंदी ही एक ‘कुंजी भाषा’ के रूप में मानी गई इसलिए सर्वाधिक व्यापक स्तर पर और वैश्विक क्षितिज पर हिंदी को ही सर्वाधिक मान्यता मिली ।उर्दू को चूंकि हिंदी की एक भाषिक शैली के रूप में देखा गया और यह मान लिया गया कि फारसी लिपि के अतिरिक्त उर्दू और हिंदी में कोई विशेष अंतर नहीं है ,इस दृष्टि से हिंदी के साथ ही उर्दू भी विश्वविद्यालय स्तर पर पढाई जाने लगी पर हिंदी की व्यापक मान्यता वैश्विक स्तर पर जो 19वीं शती में थी उसका 20 वीं सदी में बहुत विस्तार हुआ।
यह विस्तार भाषा शिक्षण के क्षेत्र में अमरीका ,योरोप के विविध देशों में, खाड़ी के देशों में, आस्ट्रेलिया आदि देशों में देखा जा सकता है वहीँ अनुसंधान के क्षेत्र में भी साहित्य के विविध पक्षों पर विश्व भर में अध्ययन और अनुसंधान हो रहा है ।उल्लेखनीय बात साहित्य के सन्दर्भ में कही जा सकती है कि भारतीय साहित्य विशेषकर हिंदी साहित्य के अनुसंधान परक पक्ष पर विदेशी विश्वविद्यालयों में गंभीर अध्ययन प्रारम्भ हुआ । इस सन्दर्भ में बेल्जियम के लयूवेंन विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर विनांद कैल्वर्ट के कार्यों का उल्लेख किया जा सकता है । कबीर, दादू , नानक तथा रैदास आदि संत कवियों के मूल पाठ का अनुसंधान जिसे पाठालोचन कहा जाता है उस क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया अनुसंधान प्रोफ. माता प्रसाद गुप्त ,प्रोफ. उमाशंकर शुक्ल तथा प्रोफ.पारस नाथ तिवारी के श्रम साध्य कार्य का स्मरण दिलाता है । डॉ. कामिल बुल्के ने ‘राम कथा- उद्भव ओर विकास’ को अपने अनुसंधान का विषय बनाया । डॉ. आर .एस . मक्ग्रेगर ने हिंदीकृष्ण साहित्य का, इमरे बंगा ने घनानंद का , लिंडा हेस ने कबीर के साहित्य का अनुसंधान परक अध्ययन प्रस्तुत किया।
भारतीय साहित्य का एक दूसरा आयाम विदेश में बसे हुए प्रवासी भारतीयों द्वारा भारतीय भाषाओं में लिखा गया साहित्य है । प्रवासी भारतीयों की संख्या विश्व में आज ढाई करोड़ से अधिक बताई जाती है ।प्रवासी भारतीय भी दो कोटि के हैं । पहले वे हैं जो गिरमिट प्रथा के अंतर्गत बहला फुसलाकर फ़ीजी ,मारीशस ,सूरीनाम ,दक्षिण अफ्रीका ,त्रिनिदाद ,गुयाना आदि देशों में ले जाए गए थे तथा गिरमिट की अवधि समाप्ति पर वहीँ बस गए । दूसरी कोटि में वे भारतीय है जो भारत के स्वतन्त्र होने के बाद से सुन्दर भविष्य और व धन अर्जन के निमित्त अमरीका इंग्लॅण्ड,जर्मनी, कनाडा ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में गए और वहीं बस गए पर इन प्रवासी भारतीयों के मध्य हिंदी भारतीय अस्मिता की प्रतीक बनी । प्रख्यात भारतीय अमरीकी हिन्दी कथाकार डॉ. सुषुम बेदी अमरीका में बसे हुए प्रवासी भारतीयों के बारे में लिखती हैं –
‘हर हिन्दुस्तानी यहाँ एक व्यापारी है ,अमेरिका के एक बड़े बाज़ार में हिन्दुस्तानी अपनी प्रतिभा, ज्ञान , कौशल और अनुभव को लेकर आता है औरखुद को चढ़ा देता नीलामी पर । अच्छा दम लग जाए तो क्या खूब-बढ़िया सी नौकरी ,सुन्दर सा घर ,नमकीन सी बीवी और बलार्ड गर्ल फ्रेंड सबका सौदा हो जाता है । न बढ़िया दाम लगे तो भी बैरा या दुकानदार की नौकरी ही सही । ले देकर किसी को यह सब घाटे का सौदा नहीं लगता । ‘-सुषुम बेदी ,हवन ,पृष्ठ १२९
भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति मानव की सहजात प्रवृत्ति है । यही कारण है कि ये प्रवासी भारतीय जहाँ अपनी भाषा की सुरक्षा ,संरक्षा और प्रतिष्ठा के लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर निरंतर प्रयत्नशील हैं वहीँ वे अपने भावों और विचारों की सृजनात्मक अभिव्यक्ति अपनी हिंदी में करते हैं ।उनकी हिंदी हमारी हिंदी की तरह परिनिष्ठित हिंदी नहीं है । फीजीवासी अपनी हिंदी को फीजी हिंदी या फ़ीजी बात कहते हैं ,सूरीनाम में जिस हिंदी का विकास वहां के भारतीयों ने किया है उसे वे सरनामी ,सरनामी हिंदी और सरनामी हिन्दुस्तानी कहते हैं तथा दक्षिण अफ्रीका के भारतीय अपनी हिंदी को नेटाली हिंदी कहते हैं । दक्षिण अफ्रीका में पहुंचे विविध भाषा भाषी भारतीयों ने किस प्रकार पारस्परिक संपर्क के लिए हिंदी को अपना लिया इसका बड़ा जीवंत चित्रण भवानी दयाल सन्यासी ने अपनी पुस्तक ‘प्रवासी की आत्म कथा’ में इस प्रकार किया है –
“जब गिरमिट लिखाकर भारतीय मजदूर दक्षिण अफ्रीका जाने और वहाँ बाद होने लगे तो उनके सामने परस्पर विचार-विनिमय की विकट समस्यापैदा हुई।गिरमिटियों की गांठ में तो बँधे थे केवल हिन्दी-भाषी और मद्रासी। उनके पीछे-पीछे गुजराती, तथा कुछ अन्य प्रान्त-वासी भी व्यवसाय के विचार से स्वतंत्ररुपेण वहाँ जा पहुँचे। इस प्रकार हिन्दुस्तान के विभिन्न प्रान्तों के मनुष्यों का वहाँ जमाव हो गया। उनमें कोई हिन्दी बोलता था तो कोई गुजराती, किसी की बोली तामिल थी तो किसी की तेलगु, कुछ मलयालम-भाषी थे तो कुछ कन्नड़-भाषी। एक दूसरे की बोली समझ नहीं पाते थे। इससे काम-काज में बड़ी अड़चन होने लगी, कब तक पड़ोसी के सामने मौन साधे रहते, कहाँ तक इशारे से काम किया करते? यह स्थिति तो बड़ी अवांछनीय थी। आपस में बातचीन करने के लिए एक सार्वजनिक भाषा का सवाल सामने आया, जिसे उन्होंने बड़ी सुगमता से हल कर लिया। इस बात पर विचार करने के लिए न कहीं सभा-सम्मेलन की बैठक हुई थी, न विद्वानों की वत्तृताएँ और न किसी प्रकार प्रकार की सार्वजनिक चर्चा ही। प्रत्येक भारतीय ने व्यक्तिगत रूप से अपने मन में प्रस्ताव पास कर लिया कि विभिन्न भाषा-भाषियों से बातचीत करने के लिए हिन्दी से काम लेना चाहिए। हिन्दी अपनी सरलता के प्रताप से प्रवासी भाइयों की राष्ट्रभाषा बन गई। नेटाल में मद्रासियों की संख्या सबसे अधिक है और हिन्दी-भाषियों की तादाद है उनसे बहुत कम। पर मद्रासियों के लिए हिन्दी सीखना अनिवार्य हो गया। तामिल और तेलगु द्रविड़ भाषाएँ होने तो बहुत अच्छी बोल लेता है और कोई टूटी-फूटी हिन्दी, पर बोल लेते हैं सभी। यहाँ यह भी कह देना अप्रासंगिक न होगा कि केवल दक्षिण अफीका का ही नहीं, प्रत्युत जिन-जिन उपनिवेशों में हमारे देश-वासी गिरमिट की प्रथा में गये हैं, यद्यपि वे एक-दूसरे से हजारों कोस दूर हैं, कोई प्रशांत महासागर के तट पर है तो कोई हिन्दू महासागर के किनारे, कोई अमेरिका के दक्षिण भाग में है तो कोई अफ्रिका के दक्षिणीय भाग में, तो भी यह देखकर विस्मय होता है कि उन सभी देशों के प्रवासी भारतीयों ने पारस्परिक व्यवहार के लिए एकमत से हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा स्वीकार किया – उसी से अपनी तत्कालीन आवश्यकता की पूर्ति की।” प्रवासी की आत्मकथा – भवानी दयाल सन्यासी प्रवासी भारतीयों की राष्ट्रभाषा पृष्ठ 168
फीजी के कमला प्रसाद मिश्र ,जोगिन्दर सिंह कँवल ,प्रोफ. सुब्रमनी ,प्रोफ. रेमण्ड पिल्लई ,श्री गुरुदयाल शर्मा , श्री महेश चन्द्र शर्मा ‘विनोद ‘ सूरीनाम के डॉ.जीत नराइन, पंडित हरदेव सहतू ,अमर सिंह रमण , हरिदत लछमन ‘श्रीनिवासी’, आशा राज कुमार , सुरजन परोही आदि , मारीशस के अभिमन्यु अनत ,रामदेव धुरंधर , बीरसेन जागा सिंह ,भानुमती नागदान , सरिता बुधु ,प्रहलाद राम शरण ने हिंदी को निरंतर समृद्ध किया है और विश्व स्तर पर हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाई है ।फीजी का हिंदी साहित्य ऑस्ट्रेलिया , न्यूज़ीलैंड तथा कनाडा में बसे हुए भारतीयों के मध्य तथा सूरीनाम का साहित्य हॉलैंड तथा योरोप के अन्य देशों में , मारीशस का साहित्य दक्षिण अफ्रीका तथा अफ्रीका महाद्वीप के अन्य देशों में जहाँ भारतीय बसे हुए हैं , बड़े शौक से पढ़ा जाता है और इस प्रकार विश्व के अनेक देशों में भारतीय साहित्य पहुंचता है । प्रवासी भारतीय साहित्य जो गिरमिटिया वंशजों द्वारा लिखा साहित्य है उसके महत्त्व को भारत ने पिछली शताब्दी के नावें दशक के आसपास पहचाना और इस दिशा में कई महत्वपूर्ण कार्य प्रकाशित हुए ।भारतीय ज्ञानपीठ ने ‘प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य’ नामक बृहत् ग्रन्थ प्रकाशित किया तो राष्ट्रीय साहित्य अकादमी ने ‘फीजी का सृजनात्मक हिंदी साहित्य’ तथा ‘मारीशस का सृजनात्मक हिंदी साहित्य’ और राजकमल प्रकाशन समूह ने ‘सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य’ नामक बृहत् ग्रन्थ प्रकाशित किये ।अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों में भारतीय डायस्पोरा विभागों की स्थापना हुई और प्रवासी भारतीय विशेषकर हिंदी के सृजनात्मक साहित्य का विधिवत अध्ययन अध्यापन प्रारंभ हुआ ।
भारत एक महा देश है ।भारत आज एक अरब से भी अधिक जनसंख्या वाला तथा 1652 भाषाओं वाला देश है । भारत की विशाल वाचिक और लिखित साहित्यिक संपदा से विश्व परिचित है ।तमिल और संस्कृत की संपन्न साहित्यिक संपदा हमें उत्तराधिकार में मिली है ।आज जितना साहित्य प्रतिवर्ष भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हो रहा है उतना साहित्य प्रतिवर्ष पूरे योरोप में भी संभवतः प्रतिवर्ष प्रकाशित नहीं हो रहा पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्त सृजनात्मक रचना का बहुत थोड़ा अंश ही दूसरे देशों तक पहुँच पाता है। पारस्परिक भाषिक बोधगम्यता का न होना इसमे सबसे बड़ी बाधा है । इस बाधा से उबरने का एकमात्र उपाय ‘अनुवाद का सेतु’ है जिसके माध्यम से एक भाषा की संवेदना दूसरी भाषा तक पहुंचती है । बहुभाषी भारत के लिए यह सेतु स्वदेश के लिए जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है वैश्विक स्तर पर । भारतीय साहित्यिक अभिव्यक्ति को विश्व भर में पहुंचाने के लिए, वैश्विक क्षितिज पर भारतीय साहित्य की प्रतिष्ठा हो सके इसके लिए आवश्यक है कि भारतीय भाषाओं के अच्छे साहित्यिक संचयन तैयार हों और वे कम से कम विश्व की प्रधान भाषाओं में अनूदित हों । जैसे भारतीय भाषाओं की रचनाएँ हिंदी में अनूदित होकर सम्पूर्ण भारत में पहुँच जाती हैं उसी प्रकार भारतीय साहित्यिक रचनाएँ जर्मन ,फ़्रांसीसी ,स्पेनी ,रूसी, अरबी और चीनी में अनूदित होकर विश्व बाज़ार में पहुँच सकेंगी । हिंदी के प्रेमचंद और बांग्ला के रबीन्द्रनाथ टैगोर तो अनुवाद के माध्यम से ही विश्व के साहित्य प्रेमियों तक पहुंचे हैं पर भारतीय साहित्य तो इतना विशाल और संपन्न है कि उसकी वैश्विक प्रतिष्ठा के लिए अनुवाद के ही सेतु को सशक्त करना होगा । आज विदेशी भाषाओं में अनूदित समकालीन भारतीय साहित्य परिमाण में इतना कम है कि वह भारतीय साहित्य की वैश्विक छवि नहीं बना सका है ।प्रेमचंद के गोदान और निर्मला , भीष्म साहनी के तमस, कृशन चंदर के दादर पुल के बच्चे , जैनेन्द्र के त्याग पत्र , श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी आदि जैसी कुछ ही साहित्यिक कृतियों से विदेशी परिचित हो सके हैं ।अन्य भारतीय भाषाओं का समकालीन साहित्य जो हिंदी साहित्य की ही तरह समृद्ध और विपुल है , वह अभी भी विदेशी साहित्य प्रेमियों तक नहीं पहुँच पाया है । हम आशा करते हैं कि इस नयी सदी में हम अनुवाद के अंतर राष्ट्रीय सेतु को पुष्ट कर सकेंगे और हिंदी सहित भारत की विभिन्न भाषाओं की अकूत साहित्यिक संपदा को विश्व के समक्ष प्रस्तुत कर सकेंगे जिससे भारतीय साहित्य की वैश्विक छवि और प्रभावी बन सकेगी ।
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बहुत ही ज्ञानवर्धक। साहित्यिक अनुवाद हमारी संस्कृति को पनपने मे सदा ही महत्वपूर्ण रहा है और अनमोल किरदार को निभाया है। हमें इसकी संरक्षण हेतु सर्वदा तत्पर रहना चाहिए।