पत्रकारिता का बदलता स्वरूप: आम आदमी

पत्रकारिता का आरम्भ मेरी नज़र में तब से हुआ जब मानव ने नगाड़े बजा-बजा कर अपने सन्देश भेजने शुरू किये। और तब से लेकर आज तक अनगिनत सोपानों को पार कर  अपने परिष्कृत रूप में  पत्रकारिता का हर माध्यम अपने-अपने नगाड़े बजा कर डंके की चोट पर अपने सन्देश  दृश्य और श्रव्य रूप में प्रसारित  कर रहा है। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के युग में जहाँ पत्रकारिता का स्वरूप अपने आप में पूर्णता लिए हुए है वहीं पर उस पर कई आरोप भी लग रहे हैं, जिससे अंतत: आम आदमी ही प्रभावित होता दिखाई पड़ता है- फिर चाहे वह माध्यम दृश्य हो या श्रव्य। 
बदलते युग और परिवेश के साथ मीडिया में बहुत बदलाव आया है। चाहे प्रिंट मीडिया की बात करें या अन्य माध्यमों की, आज हर जगह पत्रकारिता में आदर्शवादी सांस्कृतिक मूल्यों के स्थान पर व्यावसायिकता प्रमुख हो गयी है, जिसके कारण  सच्ची पत्रकारिता  अपना अस्तित्व खोती  जा रही है और उसमें इतना बनावटीपन आ गया है कि आम आदमी बजाय  सच्ची पत्रकारिता को  समझने के, उसकी भूलभूलैया में ऐसा खो जाता है कि वह समझ नहीं पाता कि वह उसे विश्वसनीय समझे या फिर मनोरंजन का साधन मान कर एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर  निकाल फेंके। 
आज का मीडिया आम आदमी के बारे में नहीं अपितु, आर्थिक बढ़त  के बारे में ज्यादा प्रचार का साधन मात्र रह गया है। आम आदमी की भूख, मौत, हत्या और रेप आदि के मामले इस तरह पेश किये जाते है मानो वो कोई संवेदना से भरी बात न हो कर मनोरंजन का साधन हो जो पाठक या दर्शक की संवेदनशीलता को बर्बरता की ओर ले जाती है। हाँ, इतना जरूर है कि ख़बरों को और ज्यादा चटपटा और मसालेदार बनाने के लिए अक्सर आम आदमी के हाथ में माइक थमा  दिया जाता है और वह इसी में खुश हो जाता है कि  अमुक मामले में उसकी भी राय  शामिल है किन्तु  जब मीडिया द्वारा उसके विचारों को काट-छाँट कर पेश किया जाता है तो उसकी राय  या विचार के अर्थ ही बदल जाते हैं और हताश हो कर वह यह सोचने को मजबूर हो जाता है कि ‘मैंने ऐसा तो नहीं कहा था’। पत्रकारिता का व्यावसायीकरण होना गलत नहीं है पर लोभ और मुनाफ़ा कमाने की होड़ में नैतिक मूल्यों और दायित्वों को भुला कर केवल स्वार्थ ही सिद्ध करना सही नहीं है। 
आज समाचार पैसा कमाने का विकल्प और माध्यम  बन गया है। ख़बरों को ख़बरों के रूप में न दिखा कर एक सनसनी पैदा करने की कोशिश की जाती है। हिंसा और बर्बरता के समाचारों को प्रमुखता दी जाती है। जो खबर बिकाऊ होती है वही पेश की जाती है। पैसे के बल पर  ख़बरें खरीदी जा सकती हैं और बेची भी। जबकि होना यह चाहिए कि केवल सही तथ्य और सत्य प्रेषित किये जायें। इस मामले में दूरदर्शन और कुछ समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं को अपवाद की श्रेणी में रखा जा सकता  है पर ज्यादातर निजी समाचार चैनलों में एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ सी दिखाई देती है।इस होड़ की दौड़ में कुछ मीडिया चैनल इतना आगे बढ़ जाते हैं कि ख़बरों पर झूठ का मुलम्मा चढ़ाने से भी नहीं चूकते.बुद्धू बक्से के सामने बैठा आम आदमी सच और झूठ में भेद नहीं कर पाता.यहाँ तक कि ये चैनल्स हत्या जैसे मामलों का मीडिया ट्रायल तक करने से नहीं चूकते. लेकिन पहले ऐसा  नहीं होता था। अगर हम पत्रकारिता के इतिहास  पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि  आज़ादी के पहले के दिनों में पत्रकारिता को जो सच्चा स्वरूप था आज बदल कर बिलकुल उलट हो गया है जो इतने ताम-झाम से भरा है कि आम आदमी जहाँ एक ओर  उसके ग्लैमर में उलझ जाता है वहीं दूसरी ओर वह समझ नहीं पाता कि सच्चाई क्या है?यहाँ यह उदाहरण देना ग़लत नहीं होगा कि किसी समय समाचार पत्रों की ख़बरों पर इस तरह अंकुश लगाये गये थे कि आम आदमी  त्रस्त होकर भी ख़िलाफ़त नहीं कर सकता था.लगभग वैसा ही माहौल आज भी कहीं कहीं, कभी-कभार देखने से आम आदमी की समझ में तो सब कुछ आता है पर वह कुछ कर ही नहीं सकता, सिवाय मन ही मन गुनने के। कुछ निष्पक्ष चैनलों को ख़िलाफ़त करने पर प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है।
आज का दौर नयी पत्रकारिता का है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने  प्रिंट माध्यमों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। सूचना प्रसार की इस अंधी  दौड़ में कंप्यूटर, मोबाइल तथा मल्टीमीडिया तकनीक काफ़ी आगे बढ़  चुकी है। ऑनलाइन सिटिजन जर्नलिस्ट तथा साइबर जर्नलिस्ट ने  सूचना-संसार में आशाजनक परिवर्तन करने की हर संभव कोशिश की है। आज का पाठक वर्ग  सुबह उठ कर चाय की चुस्कियों के साथ  समाचार पत्र पढ़ने की बजाय मोबाइल पर ही सारे विश्व की सूचनाएँ जान लेता है। बाकी बची हुई कसर कंप्यूटर पूरी कर देता है, पर आम आदमी तो उसी अखबार का सहारा लेता है या फिर बुद्धू  बक्से के सामने बैठ कर हर चैनल पर वही घिसी-पिटी ख़बरों को बार बार देख कर कुछ नया देख पाने की आशा में रिमोट के बटन आगे-पीछे करता रहता है या फिर बोर होकर टी.वी. बंद कर के दूसरे कामों में लग जाता है। 
अब सवाल यह उठता है कि क्या आज की पत्रकारिता आम आदमी और  उससे बने समाज के प्रति के अपना उत्तरदायित्व निभाने में सक्षम है। हाँ कुछ अंशों में है, पर खबर को  अधिक सनसनीखेज बनाने के प्रयास में  उसमें इस उत्तरदायित्व की भावना की कमी दिखाई देती है। किसी भी मुद्दे को और अधिक सनसनीखेज, बिकाऊ, ग्लैमरस  और आकर्षक  बनाने की कोशिश में वह नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी को एक तरफ रख देती है। दूसरे, अपने आर्थिक उद्देश्यों तथा राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण मीडिया अगर चाहे तो भी समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धतता को कायम रखने में पूरी तरह से सक्षम नहीं है।आज सबसे ज्यादा समस्या पेड अर्थात् बिके हुए मीडिया चैनलों की है.जिसने आम आदमी को भ्रमित करके रखा हुआ है।
पत्रकारिता के बदलते स्वरूप में आज न्यू  मीडिया के आ जाने से अब ख़बरों की खोज के  अतिरिक्त हर संवाददाता और  संपादक प्रायोजित तथा आधे-अधूरे समाचारों को गढ़ने, प्रकाशित और प्रदर्शित करने की होड़ में सबसे आगे रहने की पूरी कोशिश करता है। पहले भी कोशिश यही रहती थी कि  समाचारों  की तलाश करके  उसे आम आदमी तक पहुँचाया जाये। आज भी यह उद्देश्य कायम है अंतर केवल इतना है कि आज की पत्रकारिता लोकहित के आवरण में अपने निजी हितों को साधने में ज्यादा प्राथमिकता दे रही है। पहले संपादक पाठकों के लिए अपने उद्देश्यों के प्रति ईमानदारी से प्रतिबद्ध थे पर अब न्यू  मीडिया के प्रभाव में आ कर कुछ संवाददाताओं और संपादकों ने  अपनी  प्रतिबद्धता संचालकों, विज्ञापनदाताओं और अपने राजनैतिक आकाओं के  हाथों सौंप दी है। कुछ मुट्ठी भर  पत्रकार हैं जो निष्पक्ष हो कर ईमानदारी से लोकहित के आदर्शों पर चलने की भरसक कोशिश करते हैं पर कहीं न कहीं मात खा जाते हैं। परिणाम यह होता है कि कई महत्वपूर्ण खबरें पीछे रह जाती हैं और ग़ैरजरूरी आगे की पंक्ति में अपनी जगह बना लेती हैं। यही नहीं, निष्पक्ष चैनलों और पत्रकारों को विरोध का सामना भी करना पड़ता है।
आज आम आदमी भी यह महसूस कर रहा है कि आज की पत्रकारिता बाजारवाद और वैश्वीकरण के प्रभाव में तेजी से संक्रमित हो रही है और उसमें बदलाव भी स्थान ले रहा है।  अब सवाल यह उठता है कि नए मीडिया के साधनों के आ जाने से आज की पत्रकारिता पर क्या सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं? इसमें कोई शक नहीं इनसे  आधुनिक  पत्रकारिता और ज्यादा समृद्ध ही हुई है पर कहीं-कहीं पर यह सवाल भी उठने लगा है कि क्या  नए मीडिया के नकारात्मक प्रभाव भी पड़े हैं? 
भारत की अधिकांश जनता गाँवों में बसती है। देश की बहुत बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है जिनकी पहुँच न्यू मीडिया के साधनों तक नहीं है। लेकिन शहरीकरण से प्रभावित जनमानस के हाथ में मोबाइल आ जाने से पत्रकारिता का सूत्र भी कुछ हद तक उसके हाथ में आ गया है। न केवल वह समाचार सुनता है अपितु  समाचार सम्प्रेषण में अपना योगदान भी देता है। मोबाइल में एस. एम. एस. तथा वाट्सअप की सुविधा के चलते यह आज जनसंचार के स्थापित माध्यमों की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है। एस. एम. एस. सेवा में हर प्रकार के समाचार-खेल और खिलाड़ियों  के बारे में जानकारी, क्रिकेट की लाइव जानकारी देश-विदेश की खबरें और मनोरंजन आदि सभी विषयों को समेटा जाता है। पहले जहाँ आम आदमी को समाचार जानने के लिए समाचार पत्र हाथ में लेना पड़ता था या टी. वी. के सामने बैठ कर वक़्त देना पड़ता था आज पल भर में मोबाइल के स्क्रीन पर वह न केवल सारी जानकारी हासिल कर लेता है अपितु वॉट्सअप पर संदेश  भेज कर अपनी मित्र-मंडली को भी सूचना दे सकता है। इस प्रकार मोबाइल जनसूचना का हथियार होने के साथ-साथ जहाँ एक ओर व्यक्तिगत मास मीडिया बन गया है वहीं दूसरी और सामाजिक सन्दर्भ का मीडिया भी बन गया है, जिसका आकार इतना छोटा है कि  आम आदमी की जेब में समा जाता है। आज के दौर में नागरिक पत्रकारिता को महत्वपूर्ण  स्थान मिल जाने  के कारण आम आदमी को अपने मोबाइल द्वारा लाइव रिपोर्टिंग की सुविधा भी प्राप्त हो गयी है  जिससे सबसे  बड़ा लाभ यह हुआ है कि कुछ ऐसी खबरों की रिपोर्टिंग भी ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में तुरंत  हो जाती है क्योंकि वहाँ घटना-स्थल पर आम आदमी मौजूद होता  है और रिपोर्टर उतनी जल्दी और आसानी  से नहीं पहुँच पाता। इसी सन्दर्भ में इन्टरनेट और कंप्यूटर की भूमिका  भी बहुत अहम्  है जिसमें की-बोर्ड एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गया है जिसकी मदद से मिनटों में खबरें  दुनिया के कोने कोने में चित्रों समेत पहुँचाई जा सकतीं  हैं। सोशल नेट्वर्किंग की मदद से आम आदमी ई-मेल, ब्लॉग तथा फेसबुक पर न केवल उन समाचारों को जान पाता  है अपितु अपनी प्रतिक्रिया भी तुरंत दे देता  है। कई बार आधी-अधूरी या गलत ख़बरों को भी सही करने में मदद मिल जाती है क्योंकि करोड़ों की संख्या में देश-विदेश के लोग इन्टरनेट के ज़रिये  इन ख़बरों  से जुड़े रहते हैं।  सोशल नेट्वर्किंग से  आम आदमी को एक  लाभ  हुआ है कि अब वह मीडिया द्वारा उतनी आसानी से भरमाया नहीं जा सकता न ही छला जा सकता है। अब उसे एक प्लेटफार्म मिल गया है जहाँ वह अपनी बात रख सकता है। वह स्वयं एक संवादात्मक माध्यम बन गया है। कहने का तात्पर्य यह है न्यू मीडिया के प्रभाव से पत्रकारिता की औपचारिक जानकारी न होते हुए भी आम आदमी स्वयं पत्रकार बन गया है और उसके गूढ़  रहस्यों  को समझने लगा है।

About the author

कवयित्री, कहानी एवं स्क्रिप्ट लेखिका. 15 वर्ष प्रधानाचार्या एवं 10 वर्ष अध्यापिका. अनेक लघुकथाएँ, कहानियाँ व कविताएँ पुरस्कृत. दूरदर्शन,ज़ी टी.वी. तथा मुम्बई के आकाशवाणी केन्द्र से कहानियों का प्रसारण. मराठी फ़िल्म 'स्पंदन' का हिन्दी स्क्रीन प्ले तथा हिन्दी से अंग्रेज़ी में उपन्यास का अनुवाद - ROMANCING THE THAMES
सम्मान- जनवरी २०१४ में 'बाबा साहब अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार' (दिल्ली).
जून २०१५ में 'हिंदी गौरव सम्मान' (लंदन). मार्च २०१६ में 'हम सब साथ साथ'
द्वारा 'प्रतिभा सम्मान' (बीकानेर). नवंबर २०१७ में 'सिद्धार्थ तथागत साहित्य सम्मान' (सिद्धार्थ नगर). जून २०२० में 'आखर आखर सम्मान' (भारत).