इस प्रश्न के उत्तर में मैं कहना चाहूँगी कि किसी भी बात को, किसी भी तत्त्व को बिना सोचे-समझे, बिना उसकी तह में जाए, बिना उसका अध्ययन-परीक्षण किए, निर्मूल, बेकार घोषित करना अक्लमंदी नहीं, कल्याणकारी नहीं. पुरातन से आप न केवल वो शिक्षा कि क्या करना चाहिए वरन यह भी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं कि क्या नहीं करना चाहिए. पुरातन काल से चलते-चलते समय के इस अन्तराल में कुछ कुरीतियाँ भी पैंठ गई हैं. तो जहाँ आप यह सीख सकते हैं कि आदर्श रूप में हमें क्या करना चाहिए वहाँ यह भी सीख सकते हैं कि हमें क्या नहीं करना चाहिए. और कुरीतियों से क्या शिक्षा लेनी चाहिए. अच्छा और बुरा सीखने के इस प्रयत्न में हम जो भी जानकारी प्राप्त करें, उसे हमें जहाँ तक सम्भव हो उसके मूल रूप से ही जानने का प्रयत्न करना चाहिए, अन्यथा आपके द्वारा प्राप्त ज्ञान में किसी दूसरे की धारणाएँ भी सम्मिलित हो सकती हैं. आप उससे मिली शिक्षा को अपनी कसौटी पर कसें, अपनी परिस्थियों के अनुसार उनका विवेचन करें और तथानुसार उनको व्यवहृत करें.
सनातन धर्म – सनातन से चली आ रही परम्परा है. यह मानव धर्म है. मानवता के लिए हितकारी धर्म है. यदि आपको धर्म शब्द से आपत्ति है तो इसे सनातन परम्परा कह लीजिए. सनातन शब्द किसी भी धर्म को परिभाषित नहीं करता. इसका शाब्दिक अर्थ है लम्बे काल से चले आने वाला, पुरातन काल से चले आने वाला या सृष्टि के आरम्भ से चले आने वाला – पुरातन के शाब्दिक एवं भावार्थ – दोनों अर्थ में आप कह सकते है, अनंत काल से चले आने वाला एवं अनंत काल तक चलने वाला – इसे आप एक पद्धति कह सकते हैं, जीवन-शैली कह सकते हैं. जीवन शैली किसी भी मानव की हो सकती है. यह जीवन को सुचारू रूप से चलाने की, व्यतीत करने की कला है. वह जीवन किसी का भी हो सकता है, किसी भी जाति का हो सकता है, किसी भी मानव का हो सकता है. और जब यह किसी भी मानव का हो सकता है तो यह मानव-धर्म की श्रेणी में आता है, मानवता के धर्म की श्रेणी में आता है. यह मानव से मानव को विभाजित नहीं करता. यह तो सम्पूर्ण मानव जाति को स्वयं में समेटता है. कोई भी मानव समुदाय इसका पालन कर सकता है, इसमें आस्था रख सकता है.
मानव ने स्वयं को दूसरे मानव से दूर किया है, धर्म ने नहीं. धर्म तो एक आस्था है जो आपको जिस भी परिवार में आप जन्म लेते हैं, उसी का अनुकरण करना सिखा देती है. हाँ! यदा-कदा विरले ही होते हैं जो महापुरुष की श्रेणी में आते हैं, जो अपनी तथाकथित जाति की परम्परा की परिधि से निकल कर सम्पूर्ण मानव-जाति के बारे में सोचते हैं; एक मानव को दूसरे मानव से भिन्न नहीं करते. मानव मानव है, आप उसे केवल और केवल मानव, इन्सान की श्रेणी में रख सकते हैं, उसमें भेद-भाव कैसा! हाँ, कर्म के अनुसार भी उसमें भेदभाव उचित नहीं क्योंकि इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन भी उचित रूप से तभी हो सकता है जब हर व्यक्ति अपने-अपने कर्म का यथोचित निर्वाह करे. हर व्यक्ति हर एक कर्म करने की क्षमता नहीं रखता. कर्म न कोई छोटा है न बड़ा. अपनी-अपनी योग्यतानुसार मनुष्य अपने कर्म का निर्वाह करता है. यहाँ यह भेदभाव भी नहीं हो सकता कि किसी का कर्म छोटा है, किसी का बड़ा क्योंकि कर्म तो कर्म है, उसके छोटे-बड़े का विभाजन हम कैसे कर सकते हैं. जब हम अपनी समझ में किसी छोटे पर यह आरोप लगाते हैं कि यह तो मंद-बुद्धि (मैं यहाँ मंद-बुद्धि का प्रयोग करना चाहूँगी न कि किसी काम के छोटे बड़े होने का या किसी व्यक्ति के छोटे-बड़े होने का) है, यह तो इसी काम के लायक है, यह कोई भी बड़ा काम कर ही नहीं सकता तो यह भूल जाते हैं कि तथाकथित बड़े आदमी कहे जाने वाले किसी व्यक्ति को यदि कोई छोटा काम दिया जाए तो क्या यह बड़ा आदमी उस तथाकथित छोटा काम कर सकता है? ९९%नहीं. तो हम किस आधार पर कह सकते हैं कि यह काम बड़ा है, यह काम छोटा – या यह व्यक्ति बड़ा है, यह छोटा. सब अपनी-अपनी योग्यता, क्षमता अनुसार अपने कर्म करते हैं, यहाँ छोटे-बड़े का भेदभाव तो हो ही नहीं सकता. यह तो मानव का अहंकार बोलता है और अहंकारी मनुष्य किसी ही रूप में बड़ा नहीं होता. अहंकार आपके गुणों का नाश करता है, वह किसी भी स्थिति में आपको सभ्य, शालीन नहीं बनाता.
सनातन धर्म का अर्थ संकीर्ण रूप में नहीं वरन उसके विस्तृत रूप में लिया जाना चाहिए, जो आप के जीवन को सम्पूर्ण रूप से एक अच्छा जीवन व्यतीत करने की कला सिखाता है. आप इसे धर्म का नाम दे दें या जीवन-शैली का. वैसे भी धर्म को परिभाषित करने के लिए हम कह सकते हैं कि यह सुकृत, सत्कर्म, पुण्य, सदाचार, वह आचरण जिससे समाज की रक्षा और कल्याण हो, सुख-शांति की वृद्धि हो; कर्तव्य, मन की वृत्ति, इन्द्रियों का कार्य, गुण या क्रिया, पदार्थ का गुण, प्रकृति, स्वभाव, नित्य नियम आदि कुछ भी कह सकते हैं. इस पर चर्चा बहुत लम्बी हो जाएगी, पूरी किताब ही लिखी जा सकती है. पर संक्षेप में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हम एक शब्द सनातन से ही बहुत कुछ सीख सकते हैं. अधिकतर हम सनातन धर्म को धर्म की संज्ञा दे देते हैं पर वास्तव में यह कोई धर्म है! यह तो बस सनातन काल से चली आ रही एक परम्परा है जिसे हम जीवन-शैली ही और भी कह सकते हैं. सनातन का शाब्दिक अर्थ – जिसका आदि, अंत नहीं. पुरातन काल से चली आ रही अनन्त काल तक जाने वाली जीने की कला है.