श्रीरामचरितमानस एक ऐसा ग्रन्थ है जिसकी उपादेयता किसी भी भूखंड या किसी भी कालखंड तक भी सीमित नहीं रह सकती. भारतीय परिपेक्ष्य में तो जन-जन इससे परिचित है पर वैश्र्विक स्तर पर भी इसकी उपादेयता किसी भी प्रकार कम नहीं है. अच्छी शिक्षा सदा-सर्वदा ही लाभकारी है, हितोपदेशी है, चाहे वह किसी भी भूखंड, किसी भी कालखंड में ली जाए या दी जाए. और इसीलिए भारतीय व वैश्र्विक स्तर पर “रामचरितमानस” के महानायक श्रीराम के सम्बन्ध में कहना चाहूँगी – यद्यपि कि मैंने चित्रकूट में जन्म लिया है, पर श्रीराम के साथ ही साथ श्रीकृष्ण, शंकर जी आदि भी मेरे आराध्य हैं क्योंकि श्रीराम ने यही शिक्षा दी है – सबका आदर करना. प्रश्न यहाँ किसी भी धर्म या मतावलम्बन का नहीं है, प्रश्न है उनके द्वारा सम्पादित कर्म और कर्मफल, जो किसी एक विशेष धर्म नहीं बल्कि विश्व-मानुष-धर्म के दायरे में आते हैं. मानवता की धरोहर हैं. तभी तो श्रीरामचरितमानस कालजयी है. और तभी तो श्रेष्ठ मानव-धर्म की इन कृतियों – श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्वाल्मीकीयरामायण की ठोस आधारशिला पर व कुछ अन्य रामकथा ग्रंथों के पुख्ता स्तम्भों पर खड़ा मेरा उपन्यास “लोक-नायक राम” मोहम्मद जायसी और जयशंकर प्रसाद के “अवध रत्न” का अधिकारी हुआ. मानवता के दृष्टिकोण पर आधारित श्रीराम की चर्चा व्यक्ति को उसे सुनने पर बाधित कर देती है क्योंकि श्रीराम किसी एक विशेष धर्म के नहीं, किसी विशेष क्षेत्र के नहीं, लोक के नायक हैं श्रीराम, मानवता के संरक्षक हैं श्रीराम. उनका दायरा सीमित नहीं वरनअसीमित है, जिसमें सम्पूर्ण प्रकृति और उसके जीव-जन्तु आते हैं.
मैं अपने उपन्यास “लोक नायक राम” द्वारा यह प्रतिपादित कर रही हूँ कि श्रीराम विश्व के उस मानस का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने सद्गुणीय कर्मों से दैवीय गुण प्राप्त कर देवत्व तक पहुँचने की क्षमता रखता है. उन्होंने समाज को राक्षसों से बचाने के लिए वानरों की सोई शक्ति भी जगा दी. उनके कर्म लोक-रक्षार्थ हैं. राम-कथा जीवन के व्यावहारिक रूप को आदर्श रूप से जीने की कला है, चाहे वह जीवन किसी भी भू-भाग का क्यों न हो. राम के जीवन का, उनके चरित्र का हर पक्ष काल-कालांतर से जन-मानस को प्रभावित करता आया है, इसीलिए वे जन-मानस के आदर्श हैं. यह कथा हमारी भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर तो है ही, विश्व के जन-जन की धरोहर बनाने हेतु अपना यह योगदान यद्यपि छोटा-सा ही सही, पर भरसक प्रयास द्वारा प्रयत्नशील हूँ.
कर्त्तव्य-पथ पर अविचलित श्रीराम पुरुष-उत्तम पुरुषोत्तम हैं. काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह उनके नियंत्रण में हैं और उदारता उनका स्वभाव-जन्य गुण. वे स्वयं के लिए नहीं वरन प्रजा, समाज, राज्य की समृद्धि के लिए जिए. वट वृक्ष की तरह स्वयं घाम में जलते हुए, दूसरों की छाया देते रहे, उन्हें ताप से बचाते रहे. सदैव समष्टि को व्यष्टि के ऊपर रखा. त्याग की प्रतिमूर्ति श्रीराम ने राज्य ही नहीं अपने प्रिय सम्बंधों की भी लोक-कल्याण हेतु आहुति दी. ऐसे आदर्श पुरुष, पुरुषोत्तम ब्रह्माण्ड की धरोहर है. उनके चरित्र को विश्व स्तर पर न ले जाना उनके प्रति ही अकृतज्ञता नहीं वरन काल-कालान्तर के मानव के लिए भी कल्याणकारी नहीं है; क्योंकि मानवता वैश्र्विक है. मानव कहीं का भी क्यों न हो, गुण-दोष से भरा होता है. अत: मानवता की रक्षा ही किसी भी देश-काल का परम उद्देश्य होना चाहिए जो श्रीराम का था जिन्होंने अपने पुरुषोत्तम रूप से ही उत्तम मानव का निर्माण कर मानवता की महानता को इंगित किया. किसी भी देश का समाज मानव-समुदाय है. यदि मानव गुणी होगा तो समाज स्वयं ही सर्वहितैषीय बन जायेगा. लोक मत सर्व शक्तिमान होता है चाहे वह राजतंत्र का समय हो या लोकतंत्र का. सत्ता का महान उत्तरदायित्व है कि वह लोक-हित में संलग्न रहे और भ्रष्टाचार्य से बचे. जनता सुदृढ़ रूप से संगठित होकर ही सत्ता को बलवान बना सकती है. श्रीराम ने सदैव ही व्यक्ति और राज्य, दोनों स्तरों के उच्चादर्शों को जीते हुए लोक-कल्याण की भावना, जन-जीवन की समृद्धि को ही सर्वाधिक प्रधानता दी है. सदैव समष्टि को व्यष्टि के ऊपर रखा है. उनके उच्चादर्शों में व्यक्ति-स्तर सर्वदा सामाजिक स्तर में अन्तर्निहित हो जाता है. श्रीराम कभी भी अपने लिए नहीं जिए, वे तो सदैव प्रजा, समाज, राज्य की समृद्धि में अनवरत लगे रहे. श्रीराम की यही मंगलकारी, हितैषी शिक्षा सर्वदेशीय, सर्वकालिक है, जो केवल भारत की ही नहीं विश्व की धरोहर है. और इस धरोहर को जहाँ तक भी सम्भव हो, जिस तरह भी सम्भव हो, पहुँचाना मेरा उद्देश्य है.
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